Tuesday 6 October 2020

सच्ची मोहब्बत कब होती है

लोग मुझसे पूछते है सच्ची मोहब्बत कब होती है

जब इंसान खुद को समझने लगे फरिश्ता तब होती है


महबूबा के सिवा फिर कुछ आता नहीं है नज़र

उसका ज़िक्र आते ही महफ़िल में झुख जाती है नज़र

वस्ल के लिए छोड़ देता है इंसान सब ज़रूरी काम

हिज्र की कल्पना मात्र से हो जाता है  काम तमाम

सच्ची मोहब्बत तब होती है


रंग, रूप, जाति, धर्म से नहीं रह जाता है कोई मतलब

कर्मकांड, बुजुर्गो की बंदिशें लगने लगती है बे -मतलब

घर के कोने में पड़े आईने को लिया जाता है निकाल

सुबह शाम चेहरे और बालों की करने लगते है देख-भाल

सच्ची मोहब्बत तब होती है


हिन्दू  यकीन करने लगता है जन्नत जहन्नुम में

मुसलमान यकीन करने लगता है पुनर्जन्म में

माशूका को समझने लगता है वो  एक अप्सरा

उसके हाथ में दे देता है अपने जीवन का एक सिरा

सच्ची मोहब्बत तब होती है


रश्क-ए-कमर के लिए रहते है तत्पर मर मिटने को

देते नहीं उसकी जीवन में खुशियां सिमटने को

बरसात के मौसम में जी चाहता है साथ रपटने को

सच्ची मोहब्बत तब होती है


भूख प्यास लगती नहीं  

पलके नींद से झपकती नहीं

पैर चलते -चलते थकते नहीं

फिर भी चेहरे की चमक बुझती नहीं

सच्ची मोहब्बत तब होती है


बाकी सब सपने लगने लगते है बोझिल

जीवन में रह जाती है सिर्फ वो एक मंज़िल

उसको करने हासिल बुजदिल भी बन जाता है शेरदिल

लहरों से लड़ता हुआ पहुंच जाता है साहिल

सच्ची मोहब्बत तब होती है


मैं क्या बताऊं सच्ची मोहब्बत कब होती है

जब होगी तू खुद जान जायेगा

और मुकम्मल ना होने पर दुनिया जान जायेगी 

तुझे सच्ची मोहब्बत कभी हुई थी

Saturday 29 August 2020

इतनी कड़वाहट कहा से लाती हो

इतनी कड़वाहट कहा से लाती हो

सुबह क्या नीम के पत्ते चबाती हो


याद आने पर तुम्हारी  देख लेता हूं चांद को

तुम तन्हाई किस तरह मिटाती हो


सारी रात बीत जाती है बेचैनी में मेरी

बेवफाई करके तुम चैन से कैसे सो पाती हो


सामना होने पर आंख बचाकर निकल लेती हो

आंख मिचौली का ये खेल कैसे खेल जाती हो


आंख से कचरे की तरह निकाल फेंका मुझे

लेकिन तुम अब भी मेरी आंखों में समाती हो

सोता हूं तुझसे मिलने कि चाहत में

सोता हूं तुझसे मिलने कि चाहत में

अब ख्वाबों में ही मुझे राहत है


कुंभकरण अब जग जाता  बिन ढोल नगाड़ों के

हल्की आवाज़ भी लगती उसे तेरी आहट है


कैसे बसर होगी ज़िन्दगी तेरे बिना

बस इस बात की घबराहट है


मेरी मौत का इल्ज़ाम तेरे सिर ना आ जाए 

इसलिए वतन के लिए शहीद होने कि हड़बड़ाहट है

Wednesday 26 August 2020

इलाहाबाद की वह लड़की

इलाहाबाद की वह लड़की


श्वेत वर्ण

मानो पानी में घोलकर पी गई हो 

चांद को


आंखे 

काले अंधेरे जंगल जैसी

जिनमें भटक जाता था रास्ता


घुंघराले बाल

जिनमें फेरना चाहता था

हाथ


लम्बी नाक

जिसपर चढ़ा रहता था हमेशा

गुस्सा


गुलाबी होंठ

हमेशा हिलते रहते थे बातूनी के

जिन्हें अपने होंठों से करना चाहता था बंद


सूरत उसकी परी जैसी

सीरत पतित पावन गंगा जैसी

मैं हिमालय से निकली नदी की तरह

उससे मिलने चला आया इलाहाबाद


इलाहाबाद की उस लड़की को था घमंड

शायद खुद के गंगा होने का

एक पल में दिया मुझे ठुकरा संगम से

सोचा मिल जाऊंगा किसी नाले से मैं

या जाऊंगा सूख वियोग में


सुन इलाहाबाद की लड़की

आंसुओ से भर लूंगा अपने आप को

बन जाऊंगा बंगाल की खाड़ी

दरिया होकर तुझे

तब खुद आना होगा समुंद्र में 

मुझसे मिलने


Saturday 22 August 2020

जाना ही था तो मेरा दिल तो लौटा जाती

जाना ही था तो मेरा दिल तो लौटा जाती

दिल के बिना किसी और से मोहब्बत की नहीं जाती


तेरे बिना दिन नहीं गुजरते थे रात नहीं कटती थी

अब मय के बिना ज़िन्दगी गुज़ारी नहीं जाती


तुझ को पाकर रब पर यकीन हो चला था मुझे

नास्तिक की जन्नत में अगवानी की नहीं जाती


एक बार मेरी खता तो मुझको बताती जाती

इंसान कि आख़री ख्वाहिश अधूरी छोड़ी नहीं जाती


Wednesday 19 August 2020

आत्मा

 

ढूंढ रहा हूं 4 यार
जो दे सके मुझको कंधा
मरने पर

मरने के बाद
इंसान इतना लाचार
दूसरो पर आश्रित क्यों हो जाता

था ताउम्र स्वावलंबी
बजाता था आत्मनिर्भरता का डंका
कभी नहीं था झुका
मरने पर जाता लेट
सबके सामने

क्यों छोड़कर आना पड़ता है,
शरीर को शमशान
माना शरीर हो चला निस्तेज
लेकिन आत्मा तो होती अजय अमर
फिर क्यों
मुक्ति और शांति के लिए
उसे होना पड़ता है ऋणी
क्या फायदा ऐसी अमरता का?

मेरी आत्मा भी हो जाए नष्ट,
ना हो पुनर्जन्म
जहा ऐसी , निर्बल आत्मा
बनाए मुझको फिर लाचार
मरने पर
और ढूंढने पढ़े 4 यार।
                   


Sunday 16 August 2020

चाय

 काश!

चाय के उबलने तक ठहर जाती।

पानी में चाय पत्ती के रंग की तरह,

मेरे इश्क़ का रंग भी तुझपर चढ़ जाता।