Wednesday, 19 August 2020

आत्मा

 

ढूंढ रहा हूं 4 यार
जो दे सके मुझको कंधा
मरने पर

मरने के बाद
इंसान इतना लाचार
दूसरो पर आश्रित क्यों हो जाता

था ताउम्र स्वावलंबी
बजाता था आत्मनिर्भरता का डंका
कभी नहीं था झुका
मरने पर जाता लेट
सबके सामने

क्यों छोड़कर आना पड़ता है,
शरीर को शमशान
माना शरीर हो चला निस्तेज
लेकिन आत्मा तो होती अजय अमर
फिर क्यों
मुक्ति और शांति के लिए
उसे होना पड़ता है ऋणी
क्या फायदा ऐसी अमरता का?

मेरी आत्मा भी हो जाए नष्ट,
ना हो पुनर्जन्म
जहा ऐसी , निर्बल आत्मा
बनाए मुझको फिर लाचार
मरने पर
और ढूंढने पढ़े 4 यार।
                   


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