इलाहाबाद की वह लड़की
श्वेत वर्ण
मानो पानी में घोलकर पी गई हो
चांद को
आंखे
काले अंधेरे जंगल जैसी
जिनमें भटक जाता था रास्ता
घुंघराले बाल
जिनमें फेरना चाहता था
हाथ
लम्बी नाक
जिसपर चढ़ा रहता था हमेशा
गुस्सा
गुलाबी होंठ
हमेशा हिलते रहते थे बातूनी के
जिन्हें अपने होंठों से करना चाहता था बंद
सूरत उसकी परी जैसी
सीरत पतित पावन गंगा जैसी
मैं हिमालय से निकली नदी की तरह
उससे मिलने चला आया इलाहाबाद
इलाहाबाद की उस लड़की को था घमंड
शायद खुद के गंगा होने का
एक पल में दिया मुझे ठुकरा संगम से
सोचा मिल जाऊंगा किसी नाले से मैं
या जाऊंगा सूख वियोग में
सुन इलाहाबाद की लड़की
आंसुओ से भर लूंगा अपने आप को
बन जाऊंगा बंगाल की खाड़ी
दरिया होकर तुझे
तब खुद आना होगा समुंद्र में
मुझसे मिलने
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