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Sunday, 2 August 2020

मेरी बहन

तेरे जन्म कि कहानी माँ ने मुझे है बतलाई,
पिताजी ने अस्पताल में सबको मिठाई नहीं थी बटवाई,
मेरे जन्म कि तरह।

शायद उनको थी अभिलाषा एक और सपूत कि,
मेरी तरह,
जो बड़ाए उनके कुल का नाम।

नए खिलौने - कपड़े भी नहीं आते थे तेरे लिए,
दादा - दादी के चरण स्पर्श करने पर नहीं पड़ता था
तेरे सिर पर स्नेह भरे आशीर्वाद का हाथ।

पता नहीं,
तू ये भेद भाव,
महसूस करती भी थी या नहीं।
समझता तो मैं भी नहीं था तब,
पितृसत्तात्मक समाज की कुरुतियों से,
अनजान जो था।

लेकिन मम्मी कसम,
मैंने कभी नहीं रखा था ये भेदभाव अपने भीतर।
हां मैं लड़ता था तुझसे,
मैग्गी में ज़्यादा हिस्सेदारी के लिए।
लेकिन वो भाई भी होता
उससे भी लड़ता।

याद है,
मेरठ में छत पर खेलते समय,
तू भरोसा करके झुकी थी मेरी ओर;
मैं गया था हट।
कितना खून बहा था माथे से,  आए थे 5 टाके
अब कभी नहीं हटूंगा,
नहीं तोड़ूंगा तेरा भरोसा।

पिताजी की कुल के सपूत से आकांक्षाएं,
पूरी करता जा रहा था मैं।
हर चीज में मैं अव्वल,
तू जाती रही पिछड़।

शायद किसी का ध्यान ही नहीं था,
तेरी तरफ।
सब टक टकी लगाए थे बैठे,
मेरी तरफ।

फिर समय ने ली करवट,
बीमारी ने मुझे था लिए जकड़,
जवानी के एब भी आ गए थे मुझमें।
सपूत चल पड़ा था,
कपूत बनने की राह पर।

तब तूने संभाला था मुझे,
बचाती चली आई ,कई विपदाओं से।
उस दिन देखा था पितृसत्तात्मक समाज की,
कमज़र कड़ी का असली रूप।
तू बन बैठी थी मेरा भाई।

निर्भया की विभितस घटना से,
सिहिर उठे थे माता पिता।
निश्चय कर लिया था,
घर की इज्ज़त को,
घर के बाहर नहीं भेजेंगे पढ़ने।

लेकिन तूने भी ठान ली थी,
जाने की दिल्ली।
12th सीबीएसई में लाई, 98 %
और पिताजी के हाथ से  मिठाई खाते हुए ,
अखबार में तस्वीर।

जो ये सपूत नहीं कर सका ,
वो तूने कर दिखाया।

जितना मुझपर व्यर्थ किया माता पिता ने,
उसका एक चौथाई भी तुझपर नहीं लगाया।
सीमित साधनों के बावजूद,
आज है मुझसे बेहतर  स्तिथि में,
बढ़ाया  हैं माता पिता का मान।

मैं निकला एक कपूत,
जिसने हमेशा उनका सिर है झुकवाया।

अब जो हो गया वो बदल नहीं सकता कोई,
लेकिन ये देता हूं वचन।
जो अधिकार होता है एक बेटे का ,
हमारे समाज में।
वो सब है तेरा।
तू ही उनका बेटा,
तू ही मेरा भाई है।



Friday, 31 July 2020

प्रेम का वृक्ष


क्यों चली गई तुम, मुझको छोड़ कर तन्हा
मेरे दिल का दर्द, करके दुगना।
रात भर कहती रही हां हां
सवेरे कर गई ना।

अनोखी थी हमारी प्रेम कहानी भी,
पतझड़ में खिली थी कलिया,
बसंत में हो गया था मनमुटाव।

अब फिर से आ रहा है पतझड़,
मैंने सीचे रखा है हमारे प्रेम का वृक्ष।
हो सकता है फल नसीब ना हो इस जन्म में,
लेकिन मुझको है अटल विश्वास ,
वापस लेता रहूंगा जन्म
जब तक न चख लू हमारे प्रेम के वृक्ष के फल।

Monday, 27 July 2020

अन्याय

न्याय के मंदिर में 
प्रेम ढूंढ रहा था वो।
बाबा साहेब के संविधान की जगह
तुमको था पूज रहा।
मेनका बनकर
विश्वामित्र की तपस्या तो भंग कर दी|
लेकिन संसार बसाने के बजाय
क्यों धकेल दिया उसे बुद्ध की राह पर।
न्याय के मंदिर में ऐसा अन्याय!

Tuesday, 2 December 2014

जन्मदिन

आज मेरा जन्मदिन हैं 
पिछले साल भी आया था 
अगले साल फिर आएगा 

दोस्त- रिश्तेदार बधाई दे रहे  हैं 
वे खुश हैं , या फिर दिखावा कर हैं 

पर मैं दुखी हूँ 
की एक साल और व्यर्थ गया 
बिना अपने जनम की  सार्थकता  सिद्ध किए हुए 

जिस दिन कर लूंगा वो कार्य 
जिसके लिए जन्मा हूँ मनुष्य योनि में 
उस दिन मनाऊंगा अपना जन्मदिन 
मैं खुश होऊंगा  तब 

दोस्त -रिश्तेदारों की मनोदशा तब कैसी रहेगी , 
कह नहीं सकता !




Friday, 28 September 2012

तुम

भीड़  में, अंजानो  के  बीच  
तुम्हारी  याद  एक  एहसास  दिलाती   है
कि   अपनापन  एक  नायाब  चीज़  है 

चोट  पर   मरहम  के   बाद 
मिलने  वाला  आराम   भी   शायद   तुम्हारा  ही  रूप  हो  

जेठ  की   तपिश  में 
थके  हारे  पथिक  को  
तरुवर  की  छाया  सरीखा   पुण्य  भी  तुम 

यानी  इस  अंधकारमय   जीवन  में  
आशा  की  एकमात्र  दिपदिपाती  लौ  
हो  तुम 


Wednesday, 26 September 2012

मंजिल

दूर  पहाड़ी  पर  है  मेरी  मंजिल  
रास्ता  है  कठिन  
फेफड़ो  में  हवा  भी  कम  है

माता -  पिता  की  उम्मीदों  ने  
बढ़ा  दिया  है  पीठ  पर  बोझा  
और इस बोझे  को  ढोने  के  लिए एक  'डोटियाल'  भी  नहीं  ले  सकता  मैं
कि घर  से  लाया था जो  पैसे, गांठ बाध कर  - होम कर चुका
    घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतरने की शुरुआती जोर-आजमाइश में

 फ़िलहाल मन  में  है  चाहे  कितना भी  संशय
 क्योंकि जीवन  में  मिली  हैं  बस  असफलताएं  
 और किस्मत  से  रहा  है हमेशा  छत्तीस  का आंकड़ा 
    ठान तो लिया ही  है  कि पहाड़  पर  चढ़ाई करूँ
    और फहराऊं  चोटी पर पताका कामयाबी की
 
    ताकि माँ हर्षाये खुल कर, पिता मुदित हों मन ही मन
    और मुझे मिलती जाये जरुरत भर आक्सिज़न
    फेफड़ों के लिए.

Monday, 3 September 2012

इंजीनियरिंग की पढ़ाई


इंजीनियरिंग की पढ़ाई
जैसे चट्टानों पर चढ़ाई
अपने पल्ले कुछ न आता
क्लास में बैठ बस ऊँघता ही जाता
 
वही कम्प्यूटर जिस पर घर में देखते हैं  फिल्म, खेलते गेम
न जाने क्यों प्रैक्टिकल में मारता है  करेंट ....
 
यूँ तो रखता  हूँ  शौक लिखने का
और लिखी भी हैं दस-बारह छोटी-मोटी कवितायेँ
लेकिन ' जनरल ' लिखने में मरती है नानी
और इन्हें सबमिट करने में आते हैं पसीने, छूट जाते हैं छक्के
 
साल भर टीचर की करनी पड़ती है चापलूसी
तब जाकर कुछ बात है बनती
तारीखों की तरह बदलते हैं हौड
प्रिंसिपल तो हैं ही ईद के चाँद
 जिस दिन दिख गए - समझ लो वह दिन है ख़ास
 
पूरी पी. एल. बीत जाती है सुस्ती में या फिर मटरगश्ती में 
इम्तिहान से दो दिन पहले  ब-मुश्किल खुल पाती हैं किताबें 
 हर काला अक्षर भैंस से भी बड़ा दिखाई देने लगता है
इसलिए किताबें बंद कर दिल रोने को करता है, जी कहीं  भाग जाने को .... 
 
आंखिरकार सोचता हूँ
रेगुलर रहा होता सेमेस्टर भर
न किये होते लेक्चर बंक
तो डेट-शीट मिलने पर 
फर्रे बनाने का ख्याल
न लगता एक कारगर औजार की तरह
 
जिसको बांध कर पोशीदा तरीके से
निकला जाता है चट्टान की ओर.

Monday, 13 August 2012

अभावग्रस्त बचपन

अपने  संगी  साथियों  से
अलग  था  वो
बमुश्किल  मिल  पाता  था
उसे  दो  जून  का  खाना                                     
नहीं  करता  था  अपने  माँ - बाप
से  जिद  खिलौनों  की  वह                                  
अनाथ , जो  था  अभागा  ।


पढ्ने  जाता  था
एक  सरकारी  स्कूल  में
कुछ  फटी  पुरानी  पन्नों  वाली  कापियाँ ,
बिना  जिल्द  लगी
थी  उसकी  किताबें ।
सहेजने  के  लिए  उन्हें
बस्ता  भी  नहीं  था  उसके  पास
क्या  कर  सकता  था ?
मुफलिसी  का  मारा ,
जो  था  बेचारा  ।


मोहल्लें  के  बाकी  बच्चे
खेलते  नहीं   थे  उसके  साथ
शाम  को  ।
उनके  माँ - बाप  ने  दे  रखी  थी
उन्हें  हिदायतें
इसलिए  दे  दिया  करते  थे  वे  उसे  घुड़की
पाकर  अपने  घर  के  निकट  ।
दोष  था  उसका  इतना
कि  वह  था  एक  अछूत ।


आज  वही  दुत्कारा  फटकारा  गया  लड़का
बन  गया  हैं  कलेक्टर ,
पर  अभी  भी  औरों  से
अलग  हैं  वो ।
अपने  सहयोगियों  की  भांति
वह  रिश्वत  नहीं  लेता ,
और  ऊँचे  पद  का  अपने 
तनिक  भी  घमंड  नहीं  ।


Sunday, 12 August 2012

तेरे बिना

पहले  कराये
स्वर्ग  के  दर्शन
नरक  भी
तुने  ही  दिखाया....

अब  तो  मर  भी
नहीं  सकता
यानी  कर  दी  तूने
हालत  अजीब ।

मरने  के  बाद  भी  तो
चुनना  पड़ेगा  एक  और  ही  जहाँ
जोकि  होगा
एक  दूसरा  कफस
क्योंकि  स्वर्ग  भी  तो  नरक  है
तेरे  बिना ।             

            

Friday, 10 August 2012

फ़र्ज़

सोचता हूँ  अक्सर
मैं  क्यों  रहा  हूँ  जी
क्या  करने  आया
इस  संसार  में, मैं  भी

माना  कुछ  खास  नहीं  दे  पाया
अब  तक  अपना  योगदान  यहाँ
चुका  हुआ  मान  चुके  हैं
क्या  मुझे  सभी ?

पर  लोगो  को  क्या  पता
कोयला  अभी  राख  नहीं  हुआ है
और  करने  की  बहुत  कुछ  ललक
मुझमे  बची  है  अभी |

इस  जहाँ  में
एक  खास  मकसद  के  लिए
हुआ  हैं  सबका  जनम
मैं  भी  अपना  फ़र्ज़
अदा  करके  ही  जाऊंगा |
              

Tuesday, 7 August 2012

हिचकी


हिचकी  नहीं  आती  मुझे
लगता  है  
भूल  चुके है  दोस्त  यार

सगे  संबंधियों  का  भी
आया  नहीं
काफी  समय  से  कोई  तार

अब  तो  बस
ग्रीष्मावकाश  का  है  इंतजार 
जब  जाऊंगा  मैं  अपनो  के  द्वार
और  अपने  घर  बार   
     

Wednesday, 18 July 2012

तब्दीली

अब  वह   समय  नहीं  रहा
जब  एक  रूपये  की
टाफियाँ  आती  थी  चार
और  उसको  खाते  थे
मिल  बांट यार

पडोसी  की  तरक्की  पर                                         
होती  थी  खुशी
भाई  का  बच्चा  जब  आता  था  अव्वल
करके  मेहनत  खूब , बहाकर  पसीना
गर्व  से  चौड़ा  हो  जाता  था  खुद  का  सीना


अजनबियों  को  देने  से  आसरा
कोई  न  था  घबराता
अनजान  से  पूछ  लो  पता
तो  मंजिल  पर  ही  छोड़  आता


जो  नेता  निभाते  थे  अपने  किये  वादे
उन्हें  कोई  कैसे  भुला  दे
सरकारी  दफ्तरों  में  होता  काम  फटाफट
कि अफसर  हिलाते  थे   हाथ   सटा-सट

माँ - बाप  करते  थे 
बच्चों  की  शादी  तय
और  संताने  भी  निभा  ले  जाती  थी  उसे  सातों  जनम


पर  अब  हो  रहा  है  सभी  कुछ  उलटा ........


क्योंकि  अब  वह  समय  नहीं  रहा ।      

Sunday, 15 July 2012

सपना

अक्सर  देखता  हूँ
एक  सपना
जो  जगा  देता  है
मुझे  गहरी  नींद  से ।

नहीं  दिखते  हैं
कोई  भूत  या पिशाच                                     
न  ही,  किसी  प्रिय  के
खोने  का   होता  है  डर ।


दिखते  हैं  तो  बस
भूख  से  रोते - बिलखते  बच्चे
सूखे  की  मार  से
आत्महत्या  करते  किसान ,
वह  परिवार  जो  बाढ़   में
खो  चुके  हैं  सब  कुछ
और  आतंकवादियों  की गोलियों  के
शिकार  कुछ  मासूम  ।


यही  सपना  डरा 
देता  है  मुझे

उठकर  सोचता  हूँ
क्या  कभी  कुछ  कर पाऊंगा
इनके  लिए
या  मैं  भी  बने  रहूँगा
एक  मूक - दर्शक ....

जो  फिर  सो  जायेगा 
एक  अच्छे  सपने की 
चाह  में ।