तेरे जन्म कि कहानी माँ ने मुझे है बतलाई,
पिताजी ने अस्पताल में सबको मिठाई नहीं थी बटवाई,
मेरे जन्म कि तरह।
शायद उनको थी अभिलाषा एक और सपूत कि,
मेरी तरह,
जो बड़ाए उनके कुल का नाम।
नए खिलौने - कपड़े भी नहीं आते थे तेरे लिए,
दादा - दादी के चरण स्पर्श करने पर नहीं पड़ता था
तेरे सिर पर स्नेह भरे आशीर्वाद का हाथ।
पता नहीं,
तू ये भेद भाव,
महसूस करती भी थी या नहीं।
समझता तो मैं भी नहीं था तब,
पितृसत्तात्मक समाज की कुरुतियों से,
अनजान जो था।
लेकिन मम्मी कसम,
मैंने कभी नहीं रखा था ये भेदभाव अपने भीतर।
हां मैं लड़ता था तुझसे,
मैग्गी में ज़्यादा हिस्सेदारी के लिए।
लेकिन वो भाई भी होता
उससे भी लड़ता।
याद है,
मेरठ में छत पर खेलते समय,
तू भरोसा करके झुकी थी मेरी ओर;
मैं गया था हट।
कितना खून बहा था माथे से, आए थे 5 टाके
अब कभी नहीं हटूंगा,
नहीं तोड़ूंगा तेरा भरोसा।
पिताजी की कुल के सपूत से आकांक्षाएं,
पूरी करता जा रहा था मैं।
हर चीज में मैं अव्वल,
तू जाती रही पिछड़।
शायद किसी का ध्यान ही नहीं था,
तेरी तरफ।
सब टक टकी लगाए थे बैठे,
मेरी तरफ।
फिर समय ने ली करवट,
बीमारी ने मुझे था लिए जकड़,
जवानी के एब भी आ गए थे मुझमें।
सपूत चल पड़ा था,
कपूत बनने की राह पर।
तब तूने संभाला था मुझे,
बचाती चली आई ,कई विपदाओं से।
उस दिन देखा था पितृसत्तात्मक समाज की,
कमज़र कड़ी का असली रूप।
तू बन बैठी थी मेरा भाई।
निर्भया की विभितस घटना से,
सिहिर उठे थे माता पिता।
निश्चय कर लिया था,
घर की इज्ज़त को,
घर के बाहर नहीं भेजेंगे पढ़ने।
लेकिन तूने भी ठान ली थी,
जाने की दिल्ली।
12th सीबीएसई में लाई, 98 %
और पिताजी के हाथ से मिठाई खाते हुए ,
अखबार में तस्वीर।
जो ये सपूत नहीं कर सका ,
वो तूने कर दिखाया।
जितना मुझपर व्यर्थ किया माता पिता ने,
उसका एक चौथाई भी तुझपर नहीं लगाया।
सीमित साधनों के बावजूद,
आज है मुझसे बेहतर स्तिथि में,
बढ़ाया हैं माता पिता का मान।
मैं निकला एक कपूत,
जिसने हमेशा उनका सिर है झुकवाया।
अब जो हो गया वो बदल नहीं सकता कोई,
लेकिन ये देता हूं वचन।
जो अधिकार होता है एक बेटे का ,
हमारे समाज में।
वो सब है तेरा।
तू ही उनका बेटा,
तू ही मेरा भाई है।