Saturday, 29 August 2020

इतनी कड़वाहट कहा से लाती हो

इतनी कड़वाहट कहा से लाती हो

सुबह क्या नीम के पत्ते चबाती हो


याद आने पर तुम्हारी  देख लेता हूं चांद को

तुम तन्हाई किस तरह मिटाती हो


सारी रात बीत जाती है बेचैनी में मेरी

बेवफाई करके तुम चैन से कैसे सो पाती हो


सामना होने पर आंख बचाकर निकल लेती हो

आंख मिचौली का ये खेल कैसे खेल जाती हो


आंख से कचरे की तरह निकाल फेंका मुझे

लेकिन तुम अब भी मेरी आंखों में समाती हो

सोता हूं तुझसे मिलने कि चाहत में

सोता हूं तुझसे मिलने कि चाहत में

अब ख्वाबों में ही मुझे राहत है


कुंभकरण अब जग जाता  बिन ढोल नगाड़ों के

हल्की आवाज़ भी लगती उसे तेरी आहट है


कैसे बसर होगी ज़िन्दगी तेरे बिना

बस इस बात की घबराहट है


मेरी मौत का इल्ज़ाम तेरे सिर ना आ जाए 

इसलिए वतन के लिए शहीद होने कि हड़बड़ाहट है

Wednesday, 26 August 2020

इलाहाबाद की वह लड़की

इलाहाबाद की वह लड़की


श्वेत वर्ण

मानो पानी में घोलकर पी गई हो 

चांद को


आंखे 

काले अंधेरे जंगल जैसी

जिनमें भटक जाता था रास्ता


घुंघराले बाल

जिनमें फेरना चाहता था

हाथ


लम्बी नाक

जिसपर चढ़ा रहता था हमेशा

गुस्सा


गुलाबी होंठ

हमेशा हिलते रहते थे बातूनी के

जिन्हें अपने होंठों से करना चाहता था बंद


सूरत उसकी परी जैसी

सीरत पतित पावन गंगा जैसी

मैं हिमालय से निकली नदी की तरह

उससे मिलने चला आया इलाहाबाद


इलाहाबाद की उस लड़की को था घमंड

शायद खुद के गंगा होने का

एक पल में दिया मुझे ठुकरा संगम से

सोचा मिल जाऊंगा किसी नाले से मैं

या जाऊंगा सूख वियोग में


सुन इलाहाबाद की लड़की

आंसुओ से भर लूंगा अपने आप को

बन जाऊंगा बंगाल की खाड़ी

दरिया होकर तुझे

तब खुद आना होगा समुंद्र में 

मुझसे मिलने


Saturday, 22 August 2020

जाना ही था तो मेरा दिल तो लौटा जाती

जाना ही था तो मेरा दिल तो लौटा जाती

दिल के बिना किसी और से मोहब्बत की नहीं जाती


तेरे बिना दिन नहीं गुजरते थे रात नहीं कटती थी

अब मय के बिना ज़िन्दगी गुज़ारी नहीं जाती


तुझ को पाकर रब पर यकीन हो चला था मुझे

नास्तिक की जन्नत में अगवानी की नहीं जाती


एक बार मेरी खता तो मुझको बताती जाती

इंसान कि आख़री ख्वाहिश अधूरी छोड़ी नहीं जाती


Wednesday, 19 August 2020

आत्मा

 

ढूंढ रहा हूं 4 यार
जो दे सके मुझको कंधा
मरने पर

मरने के बाद
इंसान इतना लाचार
दूसरो पर आश्रित क्यों हो जाता

था ताउम्र स्वावलंबी
बजाता था आत्मनिर्भरता का डंका
कभी नहीं था झुका
मरने पर जाता लेट
सबके सामने

क्यों छोड़कर आना पड़ता है,
शरीर को शमशान
माना शरीर हो चला निस्तेज
लेकिन आत्मा तो होती अजय अमर
फिर क्यों
मुक्ति और शांति के लिए
उसे होना पड़ता है ऋणी
क्या फायदा ऐसी अमरता का?

मेरी आत्मा भी हो जाए नष्ट,
ना हो पुनर्जन्म
जहा ऐसी , निर्बल आत्मा
बनाए मुझको फिर लाचार
मरने पर
और ढूंढने पढ़े 4 यार।
                   


Sunday, 16 August 2020

चाय

 काश!

चाय के उबलने तक ठहर जाती।

पानी में चाय पत्ती के रंग की तरह,

मेरे इश्क़ का रंग भी तुझपर चढ़ जाता।

Sunday, 2 August 2020

मेरी बहन

तेरे जन्म कि कहानी माँ ने मुझे है बतलाई,
पिताजी ने अस्पताल में सबको मिठाई नहीं थी बटवाई,
मेरे जन्म कि तरह।

शायद उनको थी अभिलाषा एक और सपूत कि,
मेरी तरह,
जो बड़ाए उनके कुल का नाम।

नए खिलौने - कपड़े भी नहीं आते थे तेरे लिए,
दादा - दादी के चरण स्पर्श करने पर नहीं पड़ता था
तेरे सिर पर स्नेह भरे आशीर्वाद का हाथ।

पता नहीं,
तू ये भेद भाव,
महसूस करती भी थी या नहीं।
समझता तो मैं भी नहीं था तब,
पितृसत्तात्मक समाज की कुरुतियों से,
अनजान जो था।

लेकिन मम्मी कसम,
मैंने कभी नहीं रखा था ये भेदभाव अपने भीतर।
हां मैं लड़ता था तुझसे,
मैग्गी में ज़्यादा हिस्सेदारी के लिए।
लेकिन वो भाई भी होता
उससे भी लड़ता।

याद है,
मेरठ में छत पर खेलते समय,
तू भरोसा करके झुकी थी मेरी ओर;
मैं गया था हट।
कितना खून बहा था माथे से,  आए थे 5 टाके
अब कभी नहीं हटूंगा,
नहीं तोड़ूंगा तेरा भरोसा।

पिताजी की कुल के सपूत से आकांक्षाएं,
पूरी करता जा रहा था मैं।
हर चीज में मैं अव्वल,
तू जाती रही पिछड़।

शायद किसी का ध्यान ही नहीं था,
तेरी तरफ।
सब टक टकी लगाए थे बैठे,
मेरी तरफ।

फिर समय ने ली करवट,
बीमारी ने मुझे था लिए जकड़,
जवानी के एब भी आ गए थे मुझमें।
सपूत चल पड़ा था,
कपूत बनने की राह पर।

तब तूने संभाला था मुझे,
बचाती चली आई ,कई विपदाओं से।
उस दिन देखा था पितृसत्तात्मक समाज की,
कमज़र कड़ी का असली रूप।
तू बन बैठी थी मेरा भाई।

निर्भया की विभितस घटना से,
सिहिर उठे थे माता पिता।
निश्चय कर लिया था,
घर की इज्ज़त को,
घर के बाहर नहीं भेजेंगे पढ़ने।

लेकिन तूने भी ठान ली थी,
जाने की दिल्ली।
12th सीबीएसई में लाई, 98 %
और पिताजी के हाथ से  मिठाई खाते हुए ,
अखबार में तस्वीर।

जो ये सपूत नहीं कर सका ,
वो तूने कर दिखाया।

जितना मुझपर व्यर्थ किया माता पिता ने,
उसका एक चौथाई भी तुझपर नहीं लगाया।
सीमित साधनों के बावजूद,
आज है मुझसे बेहतर  स्तिथि में,
बढ़ाया  हैं माता पिता का मान।

मैं निकला एक कपूत,
जिसने हमेशा उनका सिर है झुकवाया।

अब जो हो गया वो बदल नहीं सकता कोई,
लेकिन ये देता हूं वचन।
जो अधिकार होता है एक बेटे का ,
हमारे समाज में।
वो सब है तेरा।
तू ही उनका बेटा,
तू ही मेरा भाई है।