Wednesday, 26 September 2012

मंजिल

दूर  पहाड़ी  पर  है  मेरी  मंजिल  
रास्ता  है  कठिन  
फेफड़ो  में  हवा  भी  कम  है

माता -  पिता  की  उम्मीदों  ने  
बढ़ा  दिया  है  पीठ  पर  बोझा  
और इस बोझे  को  ढोने  के  लिए एक  'डोटियाल'  भी  नहीं  ले  सकता  मैं
कि घर  से  लाया था जो  पैसे, गांठ बाध कर  - होम कर चुका
    घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतरने की शुरुआती जोर-आजमाइश में

 फ़िलहाल मन  में  है  चाहे  कितना भी  संशय
 क्योंकि जीवन  में  मिली  हैं  बस  असफलताएं  
 और किस्मत  से  रहा  है हमेशा  छत्तीस  का आंकड़ा 
    ठान तो लिया ही  है  कि पहाड़  पर  चढ़ाई करूँ
    और फहराऊं  चोटी पर पताका कामयाबी की
 
    ताकि माँ हर्षाये खुल कर, पिता मुदित हों मन ही मन
    और मुझे मिलती जाये जरुरत भर आक्सिज़न
    फेफड़ों के लिए.

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